तस्वीर

आज पुरानी अलमारी में मिली एक तस्वीर
अनचाहे दस्तावेज़ के किनारों से झांक रही थी
मानो तलाश रही थी किसकी नज़रे जाने अंजाने
उस पर गौर फरमाने की ख्वाहिश लिए
पलक झपकाते ही, वक्त मानो दौड़ पड़ा पीछे
यादों के बक्सो में एक डोर को खींचे।

इस काले सफ़ेद कागज़ के बेजान टुकरे में
ना जाने कितने एहसासो के पल हैं समाए
मिले थे हम एक अल्हड़ बचपने में
उमर करीब थी दोनो की सोला साल 
चेहरे पर थोड़ी हिचक और मुस्कान थी साथ।

जैसे सिगरेट से निकलता धुआं;
जो धीरे धीरे आंखों से ओझल होकर
घुल मिल जाती नीले आसमान के पन्नों में
जो नशीली भी है और राहत दायक भी,
आहिस्ते आहिस्ते कुछ ऐसे ही बस गए तुम मुझमें।

तुम गज़लो में छुपे हुए काफ़ीया थे
जिसे सुनकर कानो को सुकून मिल जाती
पहली दफा कुछ ऐसा ही लगा था हमें
पर शायद गलत थे हम;
तुम तो हर मिसरा के अंत में रुके हुए रकीब हो
जो खुदको हर बार दौहराकर 
हर गज़ल को पूरा कर जाए।

तुमसे जुड़ी आदतें अब तक बरकरार है
तुम्हारे हर लफ्ज़ ज़ेहन में ऐसे लिपटी 
मानो अब तक गूंज रही मन के दीवारों में
ऐसी कुछ ही चीज़ें सांझोकर रखा है
एक खूबसूरत सफ़र के लिए जो;
अकेले तय करना है।

- शतरूपा उपाध्याय


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