ख़याल से परे !

तपती हुई धूप में अचानक
हवा के झोंको का एहसास,
जो राहत में तबदील हो जाए।

थोड़ी जल्दी और लंबे इंतज़ार में
किसी चीज़ को खो देना और उसके,
वापस मिलने की आस लगाए रखना।

जैसे नदी में बहता हुआ पानी
और समंदर के तट पर रहकर,
क्षितिज तक जाने की बेचैनी।

कुछ जाने अंजाने चेहरों में
कभी एक जैसा तो कभी अलग रहकर,
अपने पहचान का वजूद पाना।

किसी के ख़ामोशी में भी
अल्फ़ाज़ों को समझ लेना और
ना चाहते हुए भी चुप रहना।

घड़ी की वो छोटी और बड़ी सुई 
जो समय के साथ होने और चलने,
में फर्क समझा जाए।

सूर्य के आलोक भाव में 
फूल का खिलना और उसी भाव का,
छिपकर प्रतिछाया बन जाना।

ज्ञान का अज्ञात से जुड़ जाना
और आखिर में कुछ चीजों का,
हमारे बस में ना होना।

- शतरूपा उपाध्याय







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