घड़ी की सुई जो दे रही थी दस्तक,
शुरू होने वाला था एक नया सा वक्त।
जो हक था हमारा तुम पर कभी,
धुंधला हो रहा था स्याही के कलम से वो छवि।
कहीं बिजली के कड़कने से,
कुछ खिड़कियां भी खरक रही थी।
कुछ बेबस थी यह सांसें जो चल रहे थे,
अपने जड़ों को पीछे छोड़ आगे बढ़ रहे थे।
कहानियां किस्सो में सुनाई जा रही थी,
और ज़मीनों के हिस्से कर दिए जा रहे थे।
आंसू सुख कर सहम गए थे आंख,
चिंगारियां सुलग कर बन रहे थे राख।
गुमनामी में उलझ रही थी कई ज़िंदगी,
हर एक सुबह कट रही थी एक साल जैसी।
भीड़ में भी लोग तन्हा से थे,
न जाने हम किस राह में थे।
ठिठुरते आवाज़ों के जैसे,
लोग यहां उम्मीद की आस लगाए बैठे।
जैसे खामोशियां बेदर्दी में लिपटी,
वैसे ही हमदर्दी दबे पाव आ रुकी।
सत्य यहां बड़ा अद्भुत सा था और,
फरेब वास्तविकता से ऊंचा दिखता था।
जैसे धूप में छाया नहीं मिलती,
वैसे ही कुछ हालत हमारे बस में नहीं थी।
सवाल कई थे बेतुके से,
क्या जवाब मिलता जड़ तक पहुंचने से?
मानो कुछ चीज़ो का ना होना ज़रूरी था,
जो अधूरा था उसे पूरा भी तो होना था।
अब लगता है यही ज़िंदगी का सार है,
जहां अंत से अनंत तक का सफ़र है।
- शतरूपा उपाध्याय
3 Comments
So true❣
ReplyDelete❣️
ReplyDeleteप्रशंसनीय
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